शुक्रवार, अप्रैल १३ : सूवी इंफो मैनेजमेंट को जागरण प्रकाशन लिमिटेड द्वारा 225 करोड़ रुपए में ख़रीदने के साथ ही बीते तीन-चार महीने से नई दुनिया और जागरण के बीच सौदेबाजी का दौर आखिरकार मार्च के अंत में थम गया। सूवी इंफो मैनेजमेंट के ही एक उत्पाद के तौर पर हिंदी दैनिक नई दुनिया मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और एनसीआर के पाठकों के बीच पहुंचता था। दोनों कंपनियों के बीच हुई इस डील के बाद नई दुनिया के अलावा संडे नई दुनिया और भोपाल से छपने वाला नव दुनिया सहित इसके वेबसाइट संस्करण का मालिक महेंद्र मोहन गुप्त वाला जागरण प्रकाशन लिमिटेड होगा। लंबे समय से छजलानी परिवार की मिल्कियत रही नई दुनिया को घाटे की स्थिति में ख़रीदने के एवज में मिले 75 करोड़ रुपए की कर राहत के चलते जागरण की जेब पर महज 150 करोड़ रुपए का ही भार पड़ा।
29 मार्च को नई दुनिया के दिल्ली संस्करण की आख़िरी प्रति छपी। बीते कुछ वर्षों से नई दुनिया के गिरते स्तर को उसी दिशा में आगे बढ़ाने के ज़िम्मेदार और नौकरीबदर हुए आलोक मेहता ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ 30 मार्च से नेशनल दुनिया नाम का नया अख़बार शुरू किया। आलोक मेहता की टीम ने ‘वही हैं हम, वही है दुनिया’ के जरिए पाठकों और ख़ासकर हॉकरों के भरोसे को जीतने की कोशिश की और ये कोशिश आज-कल कुछेक टीवी चैनलों पर विज्ञापन की शक्ल में और ज़्यादा चमक रही है। दिल्ली के बड़े पाठक वर्ग के लिए ये कोई मायने नहीं रखता कि नई दुनिया के मुकाबले नेशनल दुनिया अपने कलेवर में उसी तरह का है कि नहीं? यहां की बड़ी आबादी न तो नई दुनिया पढ़ती थी और न नेशनल दुनिया ही पढ़ रही है। असल सवाल ये है कि क्या मीडिया बाज़ार में ख़रीद-बिक्री की ये प्रवृत्ति मीडिया उद्योग को मोनोपली (एकाधिकार) की तरफ़ मोड़ रही है? इस तरह के अधिग्रहण का असर किस रूप में पत्रकारिता पर पड़ रहा है या पड़ने जा रहा है? मीडिया बाज़ार में अधिग्रहण और निवेश के तौर पर कौन लोग पैसे लगा रहे हैं?
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ख़बर है कि नई दुनिया के बाद जागरण अब टेलीग्राफ पर नज़रें टिकाए है। |
जागरण में जब अमेरिकी कंपनी ब्लैकस्टोन ने 12 फ़ीसदी शेयर यानी 225 करोड़ रुपए (ठीक उतना, जितने में नई दुनिया की डील हुई) निवेश किया तो जागरण के अध्यक्ष महेंद्र मोहन गुप्त ने उसी समय ये कह दिया था कि ब्लैकस्टोन के पैसे का इस्तेमाल वो कंपनी के विस्तार के लिए करेंगे। जागरण ने ऐसा किया भी। 2010 में तारिक अंसारी से मिड डे समूह ख़रीद लिया। इनमें अंग्रेजी टेबुलायड मिड डे, गुजराती मिड डे, उर्दू अख़बार इंकलाब और मिड डे डॉट कॉम शामिल थे। फिर कारोबारी वजहों से दिसंबर 2011 में मिड डे का दिल्ली और बंगलुरू संस्करण बंद कर दिया। इंकलाब को चार नई जगहों, लखनऊ, कानपुर, बरेली और दिल्ली में उतारा और पंजाबी जागरण की शुरुआत की।
मीडिया में ख़रीद-बिक्री का धंधा बेहद रोचक है। 2007 में ब्लैकस्टोन ने इनाडु समूह की फादर कंपनी उषोदाया इंटरप्राइजेज में से अपने 26 फ़ीसदी शेयर खींच लिए। उषोदाया की हालत बेहद खस्ता हो गई तो मुकेश अंबानी ने दक्षिण भारत के सबसे बड़े समूहों में से एक इनाडु में पैसा लगाने का बेहतर मौका देखा। लेकिन तेल, गैस, पेट्रोलियम समेत बाकी उद्योगों के पक्ष में जब अंबानी के मातहत मीडिया समूह लॉबिंग के लिए खड़े हों तो आलोचकों की तरफ़ से तीखे सवाल न उठे इसलिए अंबानी ने सीधे-सीधे इनाडु में पैसा नहीं लगाया।
उन्होंने निवेश बैंकर नीमेश कंपनी के रास्ते ब्लैकस्टोन वाला 26 फ़ीसदी शेयर ख़रीद लिया और इस साल की शुरुआत में देश की सबसे बड़ी मीडिया कंपनियों में से एक राघव बहल की नेटवर्क-18 समूह के घाटे की स्थिति को देखते हुए फिर मुकेश अंबानी की आरआईएल ने दांव खेला। राघव बहल और मुकेश अंबानी दोनों ने इस करार को लेकर ठीक उसी तरह की चुप्पी साध रखी थी जिस तरह महेंद्र मोहन गुप्त और विनय छजलानी ने जागरण-नई दुनिया डील को लेकर साधी। टाटा-टेटली और टाटा-जगुआर की तरह मीडिया खरीददारी में ढोल नहीं पीटा जाता और यही चुप्पी इसे तेल-साबुन और नमक के कारोबारी हितों से अलग करती है। यह चुप्पी दिखाती है कि मीडिया में निवेश करने के बाद चुप-चाप इसको अपने पक्ष में इस्तेमाल करके कहीं ज़्यादा बड़ा दांव खेला जा सकता है।
मुकेश अंबानी ने 1600 करोड़ के घाटे में चल रही टीवी-18, सीएनबीसी आवाज़, सीएनएन-आईबीएन, आईबीएन-7, कलर्स और एमटीवी को उबारने के लिए राघव बहल को रिलायंस का पैसा दिया और इस तरह नेटवर्क-18 की मिल्कियत में अंबानी की बड़ी हिस्सेदारी कायम हो गई। इससे पहले 2009 में पीटर मुखर्जी और उनकी पत्नी इंद्रानी की कंपनी आईएनएक्स मीडिया, जो न्यूज़ एक्स नाम से एक अंग्रेजी समाचार चैनल चलाती है, के घाटे की भरपाई भी मुकेश अंबानी ने की। इस तरह देखें तो बुरे वक्त में ‘डूबते को मुकेश का सहारा’ टाइप से अंबानी इन चैनलों के बड़े शेयरधारक बन गए हैं। मोटे तौर पर इस समय देश के लगभग 25 से ज़्यादा टीवी चैनलों में मुकेश अंबानी के पैसे लगे हैं। एक तरह से इन 25 चैनलों के दर्शकों के बीच तो मुकेश अंबानी ने अपनी ‘धवल छवि’ को लगातार सफ़ेद रखने का जुगाड़ कर ही लिया है! जब राघव बहल के साथ मुकेश अंबानी की डील चल रही थी तो उस समय बहल की Firstpost.com पर अंबानी और प्रणब मुखर्जी के बीच की दुरभिसंधियों को लेकर लगातार लेख लिखे जा रहे थे। प्रणब मुखर्जी को ‘मिनिस्टर ऑफ रिलायंस’ कहा जा रहा था, लेकिन जैसे ही मालिक मुकेश हुए सब थम गया।
प्राइवेट ट्रीटीज वगैरह पर इस आलेख में चर्चा नहीं की जाएगी वरना मीडिया और ग़ैर-मीडिया कंपनियों के सामंजस्य की चर्चा करने के क्रम में इन कंपनियों के नाम से ही लेख पट जाएगा। हिंदुस्तान टाइम्स समूह के साथ बिड़ला के रिश्ते और बिजनेस स्टैंडर्ड में कोटक-महिंद्रा के शेयर के बारे में ज़्यादातर लोग वाकिफ़ हैं। हां, संतुलन कायम करने के लिए मुकेश के साथ-साथ अनिल अंबानी पर चर्चा करनी ज़रूरी है! अविभाजित रिलायंस के भीतर मीडिया में निवेश करने का प्रचलन अनिल अंबानी की जिद्द से ही शुरू हुआ, जब इंडियन एक्सप्रेस से नाराज होकर अनिल अंबानी ने एक स्वतंत्र बिजनेस दैनिक निकालने का फैसला किया और इसी क्रम में 1989 में रिलायंस ने (बिजनेस एंड पॉलिटिकल) आब्जर्बर को ख़रीद लिया। उसी समय टाइम्स समूह ने विजयपत सिंघानिया से इंडियन पोस्ट खरीदा था, जिसे बाद में बंद कर दिया गया।
अनिल अंबानी ने तब से मीडिया और दूरसंचार में बेतरह रुचि दिखाई है। लगभग दर्ज़न भर अंग्रेजी मनोरंजन चैनल चलाने वाली अमेरिकी कंपनी सीबीएस के साथ अनिल का समझौता है। बिग सिनर्जी नाम से अनिल धीरू भाई अंबानी ग्रुप (एडीएजी) एक प्रोडक्शन हाउस चलाता है। ब्लूमबर्ग यूटीवी में 18 फ़ीसदी और टीवी टुडे में 13 फ़ीसदी शेयर धारक होने के अलावा नेटवर्क-18 (इसमें दोनों अंबानी के पैसे हैं) सहित कई टीवी चैनलों में अनिल अंबानी के पैसे लगे हैं। बिग एफएम के 45 स्टेशन, फिल्म प्रोडक्शन और विपणन की बड़ी कंपनी, बिग सिनेमा, बिग डीटीएच, बिगअड्डा डॉट कॉम सहित केबल उद्योग में भी अनिल का बड़ा हस्तक्षेप है।
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नई दुनिया जो अब जागरण की मिल्कियत हो गई। |
मीडिया सुनते ही जिनके जेहन में अब भी उद्योग के बदले पत्रकारिता शब्द कौंधता है, उनके लिए बता दूं कि एचटी मीडिया ने मुंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया के मुकाबले हिंदुस्तान टाइम्स को उतारने के लिए शेयर बाज़ार में खुद को पंजीकृत करवाया ताकि पैसा पीटा जा सके। दक्कन क्रॉनिकल ने शेयर बाज़ार का रास्ता नापा ताकि पैसा बनाकर हिंदू के गढ़ चेन्नई और दक्कन हेराल्ड के दबदबे वाले बंगलौर में खुद को मज़बूती से उतार सके। इसी तरह दैनिक जागरण ने शेयर बाज़ार से कमाए हुए पैसों से चैनल-7 जेटीवी नामक सैटेलाइट चैनल लांन्च किया।
बेनेट एंड कोलमैन यानी टाइम्स समूह, एचटी मीडिया लिमिटेड, एस्सेल समूह (ज़ी वाले), सन टीवी नेटवर्क, इंडिया टुडे ग्रुप जैसी विशालकाय मीडिया समूहों के सामने जागरण प्रकाशन लिमिटेड बेहद छोटा दिखता है, लेकिन खुले बाज़ार का जो प्रचलन है उसमें या तो जागरण को भी लगातार अपना विस्तार करते रहना होगा या फिर भविष्य में इसे भी कोई बड़ा घराना ख़रीद लेगा। जागरण अपने विस्तार को फिलहाल भास्कर के बरअक्स देख रहा है और दोनों के बीच गहरी प्रतिस्पर्धा चल रही है। इसलिए जिस दिन जागरण ने नई दुनिया ख़रीदा उसी दिन भास्कर ने महाराष्ट्र में दिव्य भास्कर का एक और संस्करण लॉन्च किया।
2011 की चौथी छमाही के इंडियन रीडरशिप सर्वे के मुताबिक दैनिक जागरण देश के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बार के तौर पर बरकरार है और दैनिक भास्कर इससे थोड़ा पीछे दूसरे नंबर पर है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भास्कर शीर्ष पर है और महेंद्र मोहन गुप्त वाला जागरण खुद को वहां भास्कर के मुकाबले खड़ा करना चाहता था लेकिन परेशानी ये थी कि योगेंद्र मोहन गुप्त वाला जागरण पहले से वहां छप रहा था। इस वजह से जागरण अपने ब्रांड नेम से वहां कारोबार शुरू नहीं कर सकता था, इसलिए नई दुनिया के रूप में एक पका-पकाया ब्रांड मिलते ही जागरण ने उसे ख़रीद लिया। मध्य प्रदेश में नई दुनिया तीसरा सबसे बड़ा अख़बार है- भास्कर और (राजस्थान) पत्रिका के बाद। कुछ साल पहले यह दूसरा सबसे बड़ा अख़बार था, लेकिन वहां से पिछड़ा तो अब जागरण ने लपक लिया। नई दुनिया नाम से ही यह मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में निकलता रहेगा। सिर्फ मालिक बदल गए, पाठकों और कुछेक कर्मचारियों को कानों-कान ख़बर तक नहीं हुई!
नई दुनिया के बिकने पर किया गया यह कोई स्यापा नहीं है। नई दुनिया के नामचीन संपादक राजेंद्र माथुर या राहुल बारपुते की परंपरा का मैं इसे अंत नहीं मान रहा हूं, मेरे खयाल से ये अंत काफ़ी पहले हो चुका है। मैं ये भी नहीं मानता कि जागरण के मालिक होने से अख़बार का रवैया कॉरपोरेट हो जाएगा, नई दुनिया अपने कलेवर में पूरी तरह कारोबारी ही था। नई दुनिया का कंटेट बेहद खूबसूरत था, मैं ऐसा भी नहीं मानता। मुझे इस बात की चिंता है कि शीर्ष 10 हिंदी अख़बार में शामिल एक अख़बार को शीर्ष अख़बार खा गया। इस तरह अब एक ही अख़बार एक बात को नए 5 लाख लोगों तक पहुंचाएगा। मैंने हिसाब लगाया कि जागरण की प्रसार संख्या अमेरिका के टॉप 16 अख़बारों के बराबर है और अगर जागरण और भास्कर को जोड़ दें तो ये संख्या टॉप 50 के पार पहुंच जाती है। मैं जानता हूं कि भास्कर, जागरण या फिर नई दुनिया, ये सारे उदारीकृत अर्थव्यवस्था के खुले पक्षधर हैं लेकिन इसके बावजूद मैं चाहता हूं कि हरेक का मालिक अलग-अलग हो ताकि कारोबारी प्रतिस्पर्धा में ही सही, थोड़ा-बहुत ही सही, एक-दूसरे के हितों की पोल-खोलते रहे। जिस दिन चार-पांच मालिक पूरे मीडिया उद्योग को हांकेंग, उस दिन मर्जर, एक्वीजीशन, टेक-ओवर जैसे शब्द मीडिया बाज़ार में कम तो हो ही जाएंगे, लेकिन इसके साथ ही बंद हो जाएंगे उन चार-पांचों पर उठने वाले सवाल। जो सवाल उठेंगे वो एक खास दायरे में ही रह जाएंगे। उम्मीद करते हैं कि वैकल्पिक मीडिया के ख्वाब बुनने वाले सचमुच कुछ करेंगे।
दखल की दुनिया से साभार : http://dakhalkiduniya.blogspot.in/2012_04_01_archive.html#1938557917892772285