साथी नरेंद्र दाभोलकर के बाद, कामरेड पानसरे जी की हत्या
प्रगतिशील विचार और सहिष्णुता पर हमला
समाज सावधान रहे और चुप ना बैठे, नहीं तो जारी रहेगा सिलसिला
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महाराष्ट्र सचिव, कॉ गोविंद पानसरे जी के निधन पर जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (NAPM) को गहरा शोक है । कामरेड गोविन्द पानसरे जी की हत्या प्रगतिशील महराष्ट्र के लिए एक बड़ा हादसा है । साथी नरेंद्र दाभोलकर जी के हत्यारों की खोज और कार्यवाई ना होते हुए फिर इस कठोर सत्यवादी, मार्क्सवादी विचारवंत कार्यकर्ता पर इसी प्रकार से हमला होना बहुत कुछ सन्देश दे रहा है। दामोदर जी पर और कॉ पानसरे जी पर हुआ हमला एक ही पदत्ति से हुआ है, यह भी विशेष बात है।
इस हत्या के पीछे क्या कारण और कौन दोषी हैं? इसकी खोज नहीं होगी और जांच ठन्डे बस्ते में जायेगी तो यह सिलसिला जारी रहेगा और कई प्रगतिशील विचारधारा के स्पष्ट वक्ताओं को लक्ष्य बनाया जाएगा, यह महाराष्ट्र शासन भी जानती है। पिछले शासन ने भी जांच को मंजिल तक नहीं पहुँचाया । मोहसिन खान की हत्या, खैरलांजी, जावखेड़ा, अहमदनगर तक के हत्याकांडों में भी न्याय नहीं मिला। क्या कॉम पानसरे जी को मृत्योत्तर भी न्याय मिलेगा ? नहीं मिला तो क्या समाज चुप बैठेगा ?
कॉम पानसरे जी एक कट्टर मार्क्सवादी और हर वंचित तबके के साथ देने वाले थे। श्रमिकों, घरेलू कामगार तथा हॉकर्स या महिलाओं के, किसान – मजदूरों के अधिवक्ता थे, कोर्ट में भी और जनसंघर्षों में भी। स्पष्ट विश्लेषक तथा गहरे मुद्दों के साथ वे अपने वालो तथा दूसरों को भी मानते थे । कार्यकर्ताओं की परीक्षा लेते थे। उनके विचार और आचार एक से थे। ना कभी नेतागीरी, ना कभी गठजोड़, ना ही दिखावा, ऐसे ही राजनेता थे वे।
कॉम पानसरे जी का लेखन समता न्याय के पक्ष में, मार्क्स के साथ शाहू महाराज की विचारधारा को भी उजागर करनेवाला धर्मांधऔर जातिवादी शक्तियों के खिलाफ था। आजकी परिस्थियों में फिर उन्होंने गोडसे और गांधी हत्या की खिलाफत स्पस्ट शब्दों में की थी। पानसरे जी के कुछ ही दिन पहले की वक्तव्यों से कुछ मूलभूतवादी विचलित हुए होंगे, लेकिन वे धर्म के खिलाफ नहीं, अधर्म और धर्मभेद की खिलाफ थे। जैसे दामोदर जी, वैसे ही पानसरे जी भी अलग विचारधारा के थे लेकिन सर्वधर्मसम्भावी सर्व प्रथम थे। इनकी हत्या असहिष्णुवादी तत्वों ने की है लेकिन क्या पूरा समाज अब असहिष्णु हो गया है। क्य हम ऐसा हम मानते है ? नहीं ।
हर नागरिक, हर इंसान शांति और भाईचारा ही चाहता है, जुल्म नहीं, अमन चाहते हैं।
लेकिन मुट्ठी भर लोग जो जाति धर्म के नाम पर अस्मिता का मुद्दा बनाते है, वही दोषी हैं, विषमता, द्वेष और हिंसा फैलाने में लगे हैं। इनमे पूंजीपति और धर्मपति भी रहते आये हैं। दाभोलकर जी की हत्या का समर्थन, “अपने कर्मों से ही उन्हें मौत आ गयी” यह कहकर करनेवाले तथा “पानसरे जी भी दाभोलकर जी के ही मार्ग से जाएंगे” यह कहकर धमकाने वाले भी महारष्ट्र में हीं हैं। खुले या छुपे राजनैतिक समर्थन भी इन्हे प्राप्त होता है, किसी भी धर्म में असहिष्णुता मंजूर नहीं होते हुए, इस तरह की हरकत की होइ रहती है। दोषियों की खोज, जातिवादी अत्याचार मे न्याय, धार्मिक दंगों के बाद जांच अहवालों के बावजूद तार्किक अंततक पहुँचने ही न देने की बात साजिश जैसी चलती ही रह्ती है ।
इसलिए जरूरी है, पांसारे जी की हत्या के बाद और हत्याएं ना हो, प्रगतिशील विचारधारा ही हमला ना बन जाये, इसलिए समाज के विचारशील संवेदनशील, समतावादी लोग और समूह संगठन चुप ना बैठें। धर्म जातिववाद, कायरता, हिंसा, गैर बराबरी की खिलाफत तो करे ही किन्तु समजा के युवाओं का प्रबोधन भी करें। जरूरी है सब मिलकर अस्तित्व की मुद्दे पर बल दें, भ्रामक अस्मिता पर नहीं। ऐसा कार्य हो, तभी सही श्रद्धांजलि होगी फिर भी उनके जाने से पैदा हुई खाई नहीं ही भरी जा सकती। सादर नमन !
मेधा पाटकर, सुनीती सु.र., डॉ. सुहास कोल्हेकर, प्रसाद बागवे, उदय कुलकर्णी, डॉ. रवींद्र व्होरा, प्रा. श्याम पाटील, प्रा. विजय दिवाण,विलास भोंगाडे, व साथी
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