गाय: गलत बहस
देश के एक बड़े समुदाय की भावना गाय से जुड़ी है जोकि गाय को एक पशु ही नही पूजनीय भी मानते है। दूसरी तरफ गाय अन्य पशुओं की तरह देश के बहुत बड़े हिस्से में भोज्य सामग्री के रूप में इस्तेमाल की जाती है। ये भी सत्य है की प्रति वर्ष लाखों टन गौ वंश का मांस निर्यात किया जाता है जिसमे शुद्ध व्यापारिक दृष्टिकोण रखते हुए गाय में आस्था रखने वाले समुदाय के लोग ज्यादा शामिल है। सन् 2015 का ताजा आकड़ा 24लाख टन है। भैंस व बैलों की बलि देश में बहुत पुरातन समय से होती है और आज भी देश के बहुत से हिस्से में ये प्रथा विद्यमान है।
किंतु इन सबको एक तरफ करके देश में किसानों की ज़मीन की लूट, डबल्यू0 टी0 ओ0 के बचे अजेंडे को पूरा करने, तथाकथित माओवादी व नक्सलवादी इलाकों में रह रहे आदिवासियों से ध्यान हटाने, तथाकथित रूप से हिन्दुओ की पवित्र गंगा पर एनडीए सरकार के ‘‘नमामी गंगा कार्यक्रम‘‘ के धोखे को छुपाने के लिए तथा हिंदूवादी ताकतों को मज़बूत करने का काम किया जा रहा है।
मतलब यह कि देश की सभी समस्याओं को छोड़ कर आज देश में गोउमांस भक्षण का मुद्दा बना दिया है क्या यह संघ परिवार की एक बड़ी साजिशपूर्ण सफलता है?
भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है जिसमे गौवंश की अनिवार्य आवश्यकता को नकार नहीं सकते । कही–कही जीवन भर खेतों में काम लेने के बाद उनको अंतिम समय तक रखा जाता था किंतु जैसे–जैसे हमारी कृषि नई तकनीकों, जो खर्चीली व बाहरी भी है, पर आधारित होने लगी, ये पशु बोझ बनने लगे। नतीजा ये है की देश से इनका मांस निर्यात तेजी से होने लगा है और आज भारत विश्व में मांस निर्यात में प्रथम स्थान पर पहंुच चुका है और भारत को यह उप्लब्धि और सम्मान मोदी सरकार के कार्यकाल में प्राप्त हुआ है ।
‘‘गाय मास खाया जाए या न खाया जाए‘‘ की बहस पर आ गए है। ये बहस ही अपने आप में पूरी तरह से गलत है। बहुत से समूहों के लोग भ्रमित होकर ‘‘बीफ पार्टी‘‘ और फिर उसकी प्रतिक्रिया में‘‘पोर्क पार्टी‘‘ का आयोजन कर रहे है। गुजरात से बदनाम हुई ‘‘क्रिया की प्रर्तिक्रिया‘‘ का सिद्धांत देश में परवान चढ़ रहा है जो की देश की सांम्प्रदायिक – सामाजिक एकता के लिए खतरा बन गया है।
यह बहस गाय की, पशु आधारित कृषि में आर्थिक उपयोगिता की वास्तविक बहस से पूरी तरह अलग है। गाय पर बहस काफी हद तक आर्थिक और परम्पराओं से जुड़ा हुआ मुद्दा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बहुत से इलाकों में, जिनका हमें खुद अनुभव है, गाय का मांस सस्ता और भैस का मांस महंगा बिकता है। अर्से से दलित समाज में भी बहुत सी जातियां गाय के मांस का सेवन करती है।
एक तरफ कृषि में गाय परिवार को अनुपयोगी बना कर बेचना तेजी से हो रहा है। वर्ना देश में फैले बूचड़खानों में गाय कहंा से उपलब्ध होगी? खरीदी करने वाले व्यापारी ही सस्ते में गरीबों से खरीद कर ही बेचते हैं, जब 1921 में भी गाय का मुद्दा उठा कर साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने का प्रयास हुआ था जोकि गाँधी जी के प्रयासों से विफल हुआ और हिन्दू मुस्लिम एकता का परिचय व एक दूसरे समुदाय की भावना का सम्मान करते हुए गौकुशी पर पाबन्दी लगाई गयी थी।
आज गाय मांस का समर्थन या विरोध करना आरएसएस के भगवा अजेंडे को ही आगे बढ़ाने का काम है। इस देश ने ढाई दशक पहले जैसे राम को साम्प्रदायिक बना दिया गया,भगवा रंग को साम्प्रदायिक बना दिया गया वैसे ही आज गाय को भी साम्प्रदायिक बनाया जा रहा है।
मुंबई के देवनार कत्लगाह के बाहर विनोबा जी ने दशकों पहले सत्याग्रह चालू किया था। रोज सत्याग्रही अपनी गिरफ्तारी देते थे। यह प्रक्रिया दशकों से चालू है। किन्तु इसमें कही कोई साम्प्रदायिक तनाव नही हुआ चूंकि उसका उद्देश्य सही में गौवंश की रक्षा था। उस समय आज के गाय बचाने वाले कहीं नही थे। किन्तु आज मोदी नेतृत्व में बनी एनडीए-2सरकार के आते ही ये सारे साम्प्रदायिक समूह हमलावर हो गये है।
दादरी जैसी घटना से, केरल हाउस में जो हुआ उससे यह बात साफ नज़र आती है| धर्म के नाम पर हिंसक, राजनैतिक खेल चलाना देश के लिए, अल्पसंख्यक तथा बहुसंख्यक, सभी तबकों के अहित में ततः खतरनाक साबित हुआ है |
किंतु जैसे गंगा का जाप करने वाली आरएसएसनीत सरकार गंगा को उद्गम से लेकर सागर में समाने तक दोहन की तैयारी कर चुकी है, उसी तरह गाय को भी मात्र एक वर्ग के प्रति कटुता फैलाने के लिए उपयोग करेगी। वर्ना क्यों नहीं कत्लगाह बंद हुए। देश के 80प्रतिशत कत्लगाह उस समुदाय के पास है जो गौवंश की रक्षा के लिए प्राण न्यौछावर नही वरन् प्राण लेने पर उतारू है।
नर्मदा किनारे एक जगह से रोज़ अवैध रूप से आदिवासियों से 500 या 1000/ रु में ख़रीदे पशु नदी में उतार कर, निघ्रुण रूप से ले जाते हैं लेकिन कई शिकायतों के बावजूद म.प्र. की भाजपा सरकार इसे नहीं रोकती है |
स्पष्ट है कि उनका उद्देश्य ना गाय बचाना है ना ही गंगा को अविरल व निर्मल करना है। उनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ तथाकथित ‘‘हिन्दू राष्ट्र‘‘ की संकल्पना बढ़ाना है। इससे परस्पर द्वेष, दूरी तथा समाज का विघटन बढ़ रहा है जो खूबसूरत भाषा–जाति–धर्म–रंगों की विभिन्नताओं वाला यह देश कदापि स्वीकार नही करेगा।
विविध सामाजिक, साहित्यिक मान्यवरों ने भी अपने पुरुस्कार लौटा कर देश में बढ़ रहे तनाव के खिलाफ स्पस्ट राय जारी की है, जिसका स्वागत होना चाहिए | जन आन्दोलों के ओर से यही एलान है कि समाज के सभी संवेंदनशीललोग इस पर सोच – विचार और चर्चा के साथ, खुद की राय बनाए,जो की अहिंसा ओर सर्वधर्म सदभाव के पक्ष में हो |
Medha Patkar – Narmada Bachao Andolan and the National Alliance of People’s Movements (NAPM); Prafulla Samantara – Lok Shakti Abhiyan & Lingraj Azad –Samajwadi Janparishad, NAPM, Odisha; Dr. Sunilam, Aradhna Bhargava – Kisan Sangharsh Samiti & Meera – Narmada Bachao Andolan, NAPM, MP; Suniti SR, Suhas Kolhekar, Prasad Bagwe – NAPM, Maharashtra; Gabriele Dietrich, Geetha Ramakrishnan – Unorganised Sector Workers Federation, NAPM, TN; C R Neelkandan – NAPM Kerala; P Chennaiah & Ramakrishnan Raju – NAPM Andhra Pradesh, Arundhati Dhuru & Richa Singh –Sangtin Kisan Mazdoor Sangathan, NAPM, UP; Sister Celia – Domestic Workers Union & Rukmini V P, Garment Labour Union, NAPM, Karnataka; Vimal Bhai – Matu Jan sangathan & Jabar Singh, NAPM, Uttarakhand; Anand Mazgaonkar, Krishnakant – Paryavaran Suraksh Samiti, NAPM Gujarat; Kamayani Swami, Ashish Ranjan – Jan Jagran Shakti Sangathan & Mahendra Yadav – Kosi Navnirman Manch, NAPM Bihar; Faisal Khan, Khudai Khidmatgar, NAPM Haryana; Kailash Meena, NAPM Rajasthan; Amitava Mitra & Sujato Bhadra, NAPM West Bengal; B S Rawat – Jan Sangharsh Vahini & Rajendra Ravi, Madhuresh Kumar, Shabnam, Rishit, Amit – NAPM, Delhi

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